हाल के दिनों में "एक राष्ट्र, एक चुनाव" का मुद्दा राजनीति और नीतियों के केंद्र में है। सत्ता पक्ष इसे आर्थिक विकास और संसाधनों की बचत का कदम बता रहा है, जबकि विपक्ष इसे संघीय ढांचे के लिए खतरा मान रहा है। सवाल यह है कि क्या यह मॉडल देश की इकोनॉमी को वास्तव में बूस्ट दे सकेगा? आइए इसे समझते हैं।
कोविंद आयोग और उसकी सिफारिशें
"एक राष्ट्र, एक चुनाव" की संभावनाएं तलाशने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन हुआ। आयोग ने मार्च 2024 में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी। रिपोर्ट में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश की गई।
आयोग ने इस मॉडल को लागू करने से पहले दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, बेल्जियम, जर्मनी, जापान और इंडोनेशिया समेत कई देशों की चुनाव प्रक्रियाओं का अध्ययन किया। कोविंद ने इसे आर्थिक विकास का इंजन बताते हुए दावा किया कि इससे भारत की जीडीपी वृद्धि दर 7.23% से 1.5% बढ़ सकती है, जो देश को 10% की जीडीपी दर के करीब ले जाएगी।
आर्थिक फायदे: खर्च और निवेश में सुधार
रिपोर्ट बताती है कि एक साथ चुनाव से सरकारी खर्च में भारी कमी होगी। चुनावों के लिए मानव संसाधन, उपकरण और सुरक्षा की तैनाती पर आने वाला खर्च कम होगा। इससे बचा धन हेल्थ और शिक्षा जैसे अहम क्षेत्रों में लगाया जा सकेगा।
रिपोर्ट के अनुसार, एक साथ चुनाव होने से नेशनल ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन (निवेश) का अनुपात 0.5% तक बढ़ सकता है। सार्वजनिक खर्च में 17.67% की वृद्धि की संभावना है। साथ ही मुद्रास्फीति दर में 1.1% तक की गिरावट दर्ज की जा सकती है।
एक राष्ट्र, एक चुनाव का इतिहास और संभावित चुनौतियां
1951 से 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। लेकिन कुछ राज्यों में असमय चुनावों के कारण यह सिलसिला टूट गया। अब इसे दोबारा लागू करने का प्रयास हो रहा है।
हालांकि, विपक्ष का कहना है कि यह संघीय ढांचे को कमजोर करेगा और राज्यों की स्वायत्तता पर असर डालेगा। इसके अलावा, समय से पहले विधानसभाएं भंग होने की स्थिति में यह मॉडल कितना प्रभावी होगा, यह भी सवालों के घेरे में है।
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